•○⊙जय श्री राधा रमण⊙○•

 
•○⊙जय श्री राधा रमण⊙○•
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पुनि पुनि कहति हैं ब्रज नारि । धन्य बड़ भागिनी राधा, तेरैं बस गिरिधारि ॥ धन्य नंद- कुमार धनि तुम, धन्य तेरी प्रीति । धन्य दोउ तुम नवल जोरी, कोक कलानि जीति ॥ हम विमुख, तुम कृष्न- संगिनि, प्रान इक, द्वै देह । एक मन, इक बुद्धि, इक चित, दुहुँनि एक सनेह ॥ एक छिनु बिनु तुमहिं देखै, स्याम धरत न धीर । मुरलि मैं तुव नाम पुनि, पुनि कहत हैं बलबीर । स्याम मनि तैं परखि लीन्हौ, महा चतुर सुजान । सूर के प्रभु प्रेमहीं बस, कौन तो सरि आन ॥ 1॥ राधा परम निर्मल नारि । कहति हौं मन कर्मना करि, हृदय- दुविधा टारि ॥ स्याम कौं इक तुहीं जान्यौ, दुराचारिनि और । जैसें घटपूरन न डोलै, अघ भरौ डगडौर ॥ धनी धन कबहूँ न प्रगटै, धरै ताहि छपाइ । तैं महानग स्याम पायौ, प्रगटि कैसें जाइ ॥ कहति हौं यह बात तोसौं, प्रगट करिहौ नाहिं । सूर सखी सुजान राधा, परसपर मुसुकाहिं ॥ 2॥ तैं ही स्याम भले पहिचाने । साँची प्रीति जानि मनमोहत, तेरेहिं हाथ बिकाने ॥ हम अपराध कियौ कहि तुमसौं, हमहीं कुलटा नारि । तुमसौं उनसौं बीच नहीं कछु, तुम दोऊ बर- नारि ॥ धन्य सुहाग भाग है तेरौ, धनि बड़भागी स्याम । सूरदास- प्रभु से पति जाकैं, तोसी जाकैं बाम ॥ 3॥ राधा स्याम की प्यारी । कृष्न पति सर्वदा तेरे, तू सदा नारी ॥ सुनत बनी सखी- मुख की, जिय भयौ अनुराग । प्रेम- गदगद, रोम पुलकित,समुझि अपनौ भाग ॥ प्रीति परगट कियौ चाहै, बचन बोलि न जाइ । नंद-नंदन काम-नायक रहे, नैननि छाइ ॥ हृदय तैं कहुँ टरत नाहीं, कियौ निहचल बास । सूर प्रभु- रस भरी राधा, दुरत नहीं प्रकास ॥ 4॥ जौ बिधना अपबस करि पाऊँ । तो सखि कह्यौ होइ कछु तेरौ, अपनी साध पुराऊँ ॥ लोचन रोम- रोम-प्रति माँगौं, पुनि- पुनि त्रास दिखाऊँ । इकटक रहैं पलक नहिं लागैं , पद्धति नई चलाऊँ ॥ कहा करौं छबि-रासि स्यामधन, लोचन द्वै नहिं ठाऊँ । एते पर ये निमिष सूर सुनि , यह दुख काहि सुनाऊँ ॥ 5॥ कहि राधिका बात अब साँची । तुम अब प्रगट कही मो आगैं, स्याम- प्रेम-रस माँची ॥ तुमकौं कहाँ मिले, नँद- नंदन, जब उनकैं रँग राँची । खरिक मिले, की गोरस बेंचत, की जब बिषहर बाँची ॥ कहैं बने छाँड़ौ चतुराई, बात नहीं यह काँची । सूरदास राधिका सयानी, रूप-रासि- रस- खाँची ॥6॥ कब री मिले स्याम नहिं जानौं । तेरी सौं करि कहति सखी री, अजहूँ नहिं पहिचानौं ॥ खरिक मिले, की गोरस बेंचत, की अबहीं, की कालि । नैननि अंतर होत न कबहूँ, कहति कहा री आलि ॥ एकौ पल हरि होत न न्यारे, नीकैं देखे नाहिं । सूरदास- प्रभु टरत न टारैं, नैननि सदा बसाही ॥7॥ स्याम मिले मोहिं ऐसैं माई । मैं जल कौं जमुना तट आई । औचक आए तहाँ कन्हाई । देखत ही मोहिनी लगाई । तबहीं तैं तन- सुरति गँवाई । सूधैं मारग गई भुलाई । बिनु देखैं कल परै न माई । सूर स्याम मोहिनी लगाई ॥ तबहीं तैं हरि हाथ बिकानी । देह- गेह-सुधि सबै भुलानी । अंग सिथिल भए जैसें पानी । ज्यौं-ज्यौं करि गृह पहुँची आनी । बोले तहा अचानक बानी । द्वारैं देखे स्याम बिनानी । कहा कहौं सुनि सखी सयानी । सूर स्याम ऐसी मति ठानी ॥9॥ जा दिन तैं हरि दृष्टि परे री । जा दिन तैं मेरे इन नैननि, दुख सुख सब बिसरे री । मोहन अंग गुपाल लाल के, प्रेम- पियूष भरे री । बसे उहाँ मुसुकनि- बाँह लै, रचि रुचि भवन करे री ॥ पठवति हौं मन तिनहिं मनावन, निसदिन रहत अरे रही । ज्यौं ज्यौं जतन करति उलटावति, त्यौं त्यौं उठत खरे री ॥ पचिहारी समुझाई ऊँच-निच, पुनि-पुनि पाइ परे री । सो सुख सूर कहाँ लौं बरनौं, इक टक तैं न टरे री ॥10॥ जब तौं प्रीति स्याम सौं कीन्हीं । ता दिन तैं मेरैं इन नैननि, नैकुहुँ न लीन्हीं ॥ सदा रहै मन चाक चढ़्यौ, और न कछू सुहाई । करत उपाइ बहुत मिलिबे कौं, यहै बिचारत जाई ॥ सूर सकल लागति ऐसीयै,सो दुख कासौं कहियै । ज्यौं अचेत बालक की बेदन, अपने ही तन सहियै ॥11॥ ना जानौं तबहीं तैं मोकौं, स्याम कहा धौं कीन्हौ री । मेरी दृष्टि परे जा दिन तैं, ज्ञान ध्यान हरि लीन्हौ री ॥ द्वारे आइ गए औचक हीं, मैं आँगन ही ठाढ़ी री । मनमोहन- मुख देखि रही तब, काम- बिथा तनु बाढ़ी री ॥ नैन-सैन दै दै हरि मो तन, कछु इक भाव बतायौ री । पीतांबर उपरैना कर गहि ,अपनैं सीस फिरायौ री ॥ लोक-लाज, गुरुजन की संका, कहत न आवै बानी री । सूर स्याम मेरैं आँगन आए, जात बहुत पछितानी री ॥12॥ मैं अपनी मन हरत न जान्यौ । कीधौं गयो संग हरि कैं वह, कीधौं पंथ भुलान्यौ ॥ कीधौं स्याम हटकि है राख्यौ, कीधौं आपु रतान्यौ । काहे तैं सुधि करी न मेरी. मोपै कहा रिसान्यौ ॥ जबहीं तैं हरि ह्याँ ह्वै निकसे, बैरु तबहिं तैं ठान्यौ । सूर स्याम सँग चलन कह्यौ मोहिं, कह्यौ नहीं तब मान्यौ ॥13॥ स्याम करत हैं मन की चोरी । कैसैं मिलत आनि पहिलैं ही, कहि-कहि बतियाँ भोरी ॥ लोक-लाज की कानि गँवाई, फिरति गुड़ी बस डोरी । ऐसे ढंग स्याम अब सीख्यौ, चोर भयौ चित कौ री ॥ माखन की चोरी सहि लीन्ही, बात रही वह थोरी । सूर स्याम भयौ निडर तबहिं तैं, गोरस लेत अँजोरी ॥14॥ माई कृष्न- नाम जब तैं स्रवन सुन्यौ है री , तब तें भूली री मौन बावरी सी भई री । भरि भरि आवैं नैन, चित न रहत चैन, बैन नहिं सूधौ दसा औरही ह्वै गई री ॥ कौन माता,कौन पिता, कौन भैनी, कौन भ्राता, कौन ज्ञान , कौन ध्यान, मनमथ हई री । सूर स्याम जब तैं परैं परै री मेरी डीठि, बाम, काम, धाम, लोक- लाज कुल कानि नई री ॥15। राधा तैं हरि कैं रंग राँची । तो तैं चतुर और नहिं कोऊ, बात कहौं मैं साँची ॥ तैं उनकौ मन नहीं चुरायौ, ऐसी है तू काँची । हरि तेरौ मन अबहि चुरायौ, प्रथम तुहीं है नाँची । तुम अरु स्याम एक हौ दोऊ, बाकी नाहीं बाँची । सूर स्याम तेरैं बस, राधा, कहति लीक मैं खाँची ॥16॥ तुम जानति राधा है छोटी । चतुराई अँग-अँग भरी है, पूरन- ज्ञान , न बुधि की मोटी ॥ हमसौं सदा दुराव कियौं इहिं, बात कहै मुख चोटी- पोटी । कबहुँ स्याम तैं नैंकु न बिछुरति, किये रहति हमसौं हठ ओटी ॥ नँद-नंदन याही कैं बस हैं, बिबस देखि बेंदी छबि- चोटी । सूरदास- प्रभु वै अति खोटे, यह उनहूँ तैं अतिहीं खोटी ॥17॥ सुनहु सखी राधा सरिको है । जो हरि है रतिपति मनमोहन, याकौ मुख सो जोहै ॥ जैसौ स्याम नारि यह तैसी, सुंदर जोरी सोहै ॥ यह द्वादस बहऊ दस द्वै कौ, ब्रज- जुचतिनि मन मोहै ॥ मैं इनकौं घटि बढ़ि नहीं जानति, भेद करै सो को है ॥ सूर स्याम नागर, यह नागरि, एक प्रान तन दो है ॥18॥ राधा नँद- नंदन अनुरागी । भय चिंता हिरदै नहिं एकौं, स्याम रंग-रस पागी ॥ हृदय चून रँग, पय पानी ज्यौं, दुविधा दुहुँ की भागी । तन-मन- प्रान समर्पन कीन्हौ, अंग-अंग रति खागी ॥ ब्रज-बनिता अवलोकन करि-करि, प्रेम-बिबस तनु त्यागी ॥ सूरदास प्रभु सौं चित्त लाग्यौ सोवत तैं मनु जागी ॥19॥ आँखिनि मैं बसै, जिय मैं बसै,हिय मैं बसत निसि दिवस प्यारी । तन मैं बसै, मन मैं बसै, रसना हूँ मैं बसै नँदवारौ ॥ सुधि मैं बसै, बुधिहू मैं बसै, अंग- अंग बसै मुकुटवारौ । सूर बन बसै, घरहु मैं बसै, संग ज्यौ तरंग जल न न्यारौ ॥ 20॥ ॥
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