❤श्री राधा मदनमोहन❤

 
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तुम सौं कहा कहौं सुंदर घन । या ब्रज मैं उपहास चलत है, सुनि सुनि स्रवन रहति मनहीं मन ॥ जा दिन सवनि पछारि, नोइ करि, मोहि दुहि नई धेनु बंसीबन । तुम गही बाहँ सुभाइ आपनैं हौं चितई हँसि नैकु बदन-तन । ता दिन तैं घर मारग जित तित, करत चवाव सकल गोपीजन । सूर-स्याम अब साँच पारिहौं, यह पतिब्रत तुमसौं नँद-नंदन ॥1॥ स्याम यह तुमसौं क्यौं न कहौं । जहाँ तहाँ घर घर कौ घैरा, कौनी भाँति सहौं ॥ पिता कोपि करवाल गहत कर, बंधु बधन कौं धावै । मातु कहै कन्या कौ दुख, जनि बीथिनि जनि आवहु । जौ आवहु तौ मुरलि-मधुर-धुनि, मो जनि कान सुनावहु ॥ मन क्रम बचन कहति हौं साँची, मैं मन तुमहिं लगायौ । सूरदास प्रभु अंतरजामी, क्यौ न करौ मन भायौ ॥2॥ हँसि बोले गिरिधर रस-बानी । गुरजन खिजैं कतहिं रिस पावति, काहे कौं पछतानी ॥ देह धरे को धर्म यहै , स्वजन कुटुंब गृह -प्रानी । कहन देहु, कहि कहा करैंगे, अपनी सुरत हिरानी ?॥ लोक लाज काहै कौ छाँड़ति, ब्रजहीं बसैं भुलानी । सूरदास घट द्वै हैं, मन इक, भेद नहीं कछु जानी ॥3॥ ब्रज बसि काके बोल सहौं । तुम बिनुस्याम और नहिं जानौ, सकुचि न तुमहिं कहौं ॥ कुल की कानि कहा लै करिहौं तुमकौं कहाँ लहौं । धिक माता, धिक पिता बिमुख तुव भावै तहाँ बहौ ॥ कोउ कछु करै, कहै कछु कोऊ, हरष न सोक गहौं । सूर स्याम तुमकौं बिनु देखैं, तनु मन जीव दहौं ॥4॥ ब्रजहिं बसैं आपुहिं बिसरायौं । प्रकृति पुरुष एकहि करि जानहु, बातनि भेद करायौं ॥ जल थल जहाँ रहौं तुम बिनु नहिं, बेद उपनिषद गायौ । द्वै-तन जीव-एक हम दोऊ, सुख-कारन उपजायौ ॥ ब्रह्म-रूप द्वितीया नहिं कोऊ, तब मन तिया जनायौ । सूर स्याम-मुख देखि अलप हँसि, आनँद-पुँज बढ़ायौ ॥5॥ तब नागरि मन हरष भई । नेह पुरातन जानि स्याम कौ अति आनंद-भई ॥ प्रकृति पुरुष, नारी मैं वै पति, कहैं भूलि गई । को माता, को पिता,बंधु को, यह तो भेंट नई ॥ जन्म जन्म, जुग-जुग यह लीला, प्यारी जानि लई । सूरदास प्रभु की यह महिमा, यातैं बिबस भई ॥6॥ देह धरे कौ कारन सोई । लोक-लाज कुल-कानि न तजियै, जातैं भलौ कहै सब कोई ॥ मातु पिता के डर कौं मानै, मानै सजन कुटुँब सब सोई । तात मातु मोहूँ कौं भावत, तन धरि कै माया-बस होई ॥ सुनि बृषभानु-सुता मेरी बानी, प्रीति पुरातन राकहु गोई । सूर स्याम नागरिहिं सुनावत, मैं तुम एक नाहि हैं दोई ॥7॥
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